भारत के बारे में बहुत पुराना और अब अप्रासंगिक सा हो चुका एक तर्क है जो आज भी बच्चों को स्कूलों में पढ़ाया जाता है कि 'भारत गांवों में बसता है'। औद्योगिकरण और उदारीकरण के प्रारंभ तक यह बात सच भी साबित होती थी, पर आज गांवों का छोटा होता आकार और सिमटते खेतों ने इस सच्चाई को एक जुमले तक सिमित कर दिया है। इस बात को प्रमाणित करती है वर्ष 2011 की जनगणना. जिसमें साफ तौर पर भारत में शहरों की बढ़ती संख्या को रेखांकित किया गया है। लेकिन जहां हमारी दस वर्षीय जनगणना देश में नए शहरों की बढ़ती संख्या और पुराने शहरों के बढ़ते दायरों को दिखाती है वहीं पलायन की मार से जनसंख्या विहीन होते उन गांवों की भी साफ तस्वीर खींचती है, जहां के किसान अपनी जमीन और पारंपरिक कार्य खेती को छोड़ शहरों की खाक छानते नजर आते हैं।
जहां वर्ष 2001 की जनगणना के अनुसार भारत में जनगणना नगरों (Census Towns) की संख्या 1,362 थी वहीं आज 2011 में बढ़कर 3,894 हो गई है। इसी तरह वैधानिक नगरों (Statutory Towns) की संख्या 2001 के 3799 के मुकाबले 4041 और सामान्य नगरों (Towns) की संख्या 5161 से बढ़कर 7935 हो गई है। यहाँ शहरों की बढ़ती संख्या के कारण को सीधे तौर पर दो तरीकों से समझा जा सकता है जिसमें पहला तरीका ग्रामीण आबादी का शहरों में रहने का मोह जिससे या तो गांवों के लोग शहरों की और पलायन कर गए या फिर शहरी जीवन शैली से प्रभावित होकर अपने छोटे गांवों को नगर पंचायत, नगर पंचायत से नगर पालिका, नगर पालिका से महानगर पालिका और महानगर पालिका से नगर निगम में बदलने की कोशिश करने लगे।
दूसरी और गांवों में बढ़ती बेरोजगारी, दबंगई, भुखमरी और बाढ़ तथा अकाल जैसे प्राकृतिक प्रकोपों ने गांवों में बसते सच्चे भारत के बाशिंदों को शहरों की भीड़ में धकेल दिया। लेकिन कारण जो भी हो इससे एक तो शहरों की संख्या में इजाफा हुआ हैं वहीं दूसरी और पहले से खचाखच भरे दिल्ली-मुंबई जैसे महागरों में जनसंख्या घनत्व बढ़ने के साथ-साथ आवास, पेयजल, रोजगार और प्रदूषण जैसी समस्याओं ने जन्म लिया है। इन्हीं कारणों के चलते महाराष्ट्र की मनसे (महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना) जैसी राजनैतिक पार्टी को क्षेत्रीयता के आधार पर राजनीति करने का मौका मिल गया। जो किसी भी प्रगतिशील लोकतंत्र के लिए सही संकेत नहीं हैं।
शहरों की बढ़ती आबादी का असर सिर्फ नगरों-महागरों पर हुआ हो ऐसा भी नहीं है। जितना असर और अव्यवस्था शहरों में हुई है उससे कहीं ज्यादा नुकसान गांवों को हुआ है ठेस उस भावना को पहुंची हे जिसके आधार पर महात्मा गांधी ने कहा था कि भारत गांवों में बसता है। शायद यही कारण था कि आजादी के कुछ वर्षों तक भारतीय कृषि अर्थव्यवस्था का इंजन मानी जाती थी। निरंतर बढ़ती जनसंख्या और सिमित होते संसाधनों से बढ़ता कुपोषण और भुखमरी कहीं न कहीं गांवों के घटते महत्व और उनकी उपयोगिता में आती कमी का ही परिणाम है।
ऐसे में केन्द्र सरकार का देश में सात नए औद्योगिक शहरों के निर्माण का फैसला उस परिस्थिति की ओर इशारा करता है जिसे यूरोपीय देशों में औद्योगिकीकरण के दौरान देखा जा चूका है. जहाँ उच्च बुर्जुआ वर्ग, मेहनती कामगार सर्वहारा वर्ग का शोषण अपने मुनाफे के लिए करता था और निर्दोष सर्वहारा वर्ग अपना पूरा जीवन मलीन बस्तियों में गुजारने को मजबूर हुआ करता था। कहा जा रहा है कि जमशेदपुर, चढ़ीगढ़, कानपुर और इंदौर आदि की तर्ज पर बनने वाले इन शहरों का मॉडल एक्सपोट प्रोसेसिंग जोन (ईपीजेड) और स्पेशल इॅकोनामिक जोन (एसईजेड) की तरह होगा। इन औद्योगिक नगरों (लार्ज इंटिग्रेटेड टाउनशिप) को राष्ट्रीय निवेश एवं विनिर्माण क्षेत्र (नेशनल इन्वेस्टमेंट एंड मैन्यूफैक्चरिंग जोन-निम्ज) कहा जाएगा। इससे सरकार का लक्ष्य वर्ष 2022 तक अर्थव्यवस्था में विनिर्माण क्षेत्र की हिस्सेदारी 15-16 प्रतिशत से बढ़ाकर 25 प्रतिशत तक लाना है। जिससे उंची आर्थिक विकास दर, लगभग दस करोड़ नए रोजगार अवसर और अंतरराष्ट्रीय बाजार में भारतीय उत्पादों को अधिक प्रतिस्पर्धी बनाना है। लेकिन हसीन सपनों के पीछे छिपी चिंता जिनमें ऐसे औद्योगिक शहरों को विकसित करने के लिए आवश्यक जमीन की उपलब्धता, पर्यावरण संरक्षण का प्रश्न, रोजगार की गारंटी व कामगारों का सुरक्षित भविष्य, गहराता खाद्यान्न संकट व पलायन का बढ़ता स्तर- गांवों की निरंतर गिरती स्थिति और अप्रत्याशित रूप से प्राकृतिक संसाधनों में आती कमी जो पहले से स्थापित उद्योगों के चलते एक विचारणीय प्रश्न बना हुआ है।
औद्योगिक शहरों के निर्माण से कुछ प्रश्न उभरकर सामने आते है जिनमें पहला सवाल यह है कि इन शहरों का निर्माण कहाँ होगा। सरकार ने इसके लिए भी तैयारियां कर रखी हैं और उसका तर्क यह है कि इन औद्योगिक शहरों का निर्माण बंजर भूमि में किया जाएगा। लेकिन क्या सरकार के पास ऐसी कोई कार्य योजना है जिससे इन क्षेत्रों के निर्माण के लिए कम से कम 5000 हैक्टेयर बंजर भूमि उपलब्ध हो सके और इससे भूमि अधिग्रहण के अनुभवों सिंगुर और नंदीग्राम में उत्पन्न स्थिति से बचा जा सकें।
दूसरा सवाल पर्यावरण संरक्षण का है आज जहां पूरा विश्व ग्लोबल वार्मिग और मौसम परिर्वतन का रोना रो रहा है, ऐसे में क्या इन औद्योगिक शहरों के निर्माण में पर्यावरणीय चिंताओं के अनुरूप काम हो पाएगा और विश्व स्तरीय उत्पाद प्राप्त करने की दौड़ में क्या ग्रीन इॅकोनामी जैसी अवधारणा मूर्तरूप ले पाएगी। लेकिन आदर्श हाउसिंग सोसाइटी और लवासा टाउनशिप के अननुभव बताते है कि निर्माण कार्य तो हो सकता है लेकिन उनमें पर्यावरण की अनदेखी न हो कछ कह पाना मुश्किल है। ऐसा न भी और पर्यावरण संरक्षण के लिए कुछ मानक निर्धारित कर भी दिए जाए तो भी इस बात की कोई गारंटी नहीं है कि उनका शब्दशः पालन हो सकेगा और मालवा के पीथमपुर (एसईजेड) के आसपास खेती-किसानी की हो रही दुर्गति जैसी स्थिति से बचा जा सकेगा।
तीसरा सवाल है रोजगार की गारंटी और कामगारों के सुरक्षित भविष्य का। अगर इन औद्योगिक शहरों में गांवों से आए ग्रामीणें को काम दिया भी गया तो वह किसी मजदूर या बेंडर से ज्यादा का हो इसका अनुमान लगाना मुश्किल है। क्योंकि आज जहां बड़े-बड़े राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर के संस्थानों से मोटी फीस भरकर पढ़ाई करने वाले 'प्रोडक्टों' को भी प्लेसमेंट फीस के नाम पर नौकरी के लिए अच्छी खासी रकम चुकानी पड़ रही है ऐसे हालात में ग्रामीण गरीब-गुरबों, अनपढ़ और अप्रशिक्षित कामगारों को क्या काम मिलेगा आसानी से समझा जा सकता है। मान भी लिया जाए की इन अप्रशिक्षित कामगारों को उनकी योगयता के अनुसार काम दे भी दिया गया तो भी क्या इनके भविष्य की सुरक्षा की गारंटी होगी और उसे कौन वहन करेगा (सरकार या औद्योगिक घराने?), जिससे मानेसर मारूती प्लांट में उत्पन्न अस्थिरता जैसी स्थिति से बचा जा सके। यहां सरकार का एक तर्क यह हो सकता है कि इन कामगारों के भविष्य की सुरक्षा के लिए एक कोष बनाया जाना है। लेकिन क्या ऐसी स्थिति उत्पन्न होने पर उन्हें मुआवजा मिल पाएगा। यदि हां तो अब तक नर्मदा बचाओ आंदोलन के पीड़ितों और भेपाल गैस कांड के निर्दोषों को मआवजे का भुगतान पूर्ण रूप से क्यों नहीं किया गया।
चौथा सवाल पलायन की समस्या का है जो वर्तमान में अपनी सभी सीमाएं तोड़ चुकी है और दिन प्रतिदिन सुरसा के मुंह की तरह बढ़ती ही चली जा रही है। एक अनुमान के मुताबिक बिहार जैसे राज्य जहां एक साल में तीन-तीन फसलें होती है से लगभग 55 लाख भूमिहीन और छोटे किसान 2007 से अब तक पलायन कर चुके हैं। आज पंजाब में कृषि कार्य में लगे 90 प्रतिशत से ज्यादा कृषि मजदूर बिहार के हैं जो राष्ट्रीय स्तर पर एक गंभीर समस्या बनकर उभरती है। ऐसे इन शहरों के निर्माण से क्या पलायन को बढ़ावा नहीं मिलेगा, और क्या कृषि मजदूर बनें लोगों को औद्योगिक मजदूर नहीं बनाया जाएगा। इससे कृषि का जो नुकसान होगा सो अलग।
पांचवा और सबसे महत्वपूर्ण सवाल खाद्यान्न की उपलब्धता और गहराते खाद्यान्न संकट से जुड़ा है। प्राकृतिक आपदा, पर्यावरण असंतुलन, पलायन, घटते खेत और सरकारी उपेक्षा का दंश झेल रही भारतीय कृषि क्या इससे बच पाएगी। वैसे भी आजादी के बाद की राजनीति भारतीय कृषि को समूल नष्ट करने की राजनीति रही है। कृषि प्रधान भारत के विकास की जिम्मेदारी औद्योगिक क्षेत्र को सौंप दी गई और भारतीय कृषि को इस उदासीनता का दंश झोलना पड़ा। आजादी के समय की तुलना में आज कृषि उपज साढ़े तीन गुना बढ़ी है लेकिन राष्ट्रीय आय में इसका हिस्सा निरंतर घटता चला गया। जहां आजादी के समय 1947 में राष्ट्रीय आय में कृषि क्षेत्र का हिस्सा 65 प्रतिशत था वही 2007 में घटकर 17 प्रतिशत रह गया और इसके 2022 तक घटकर 6 प्रतिशत पर आने जाने की संभावना है। ऐसे में सरकार गांवों और खेती-किसानी से दूर होते इन कामगारों के लिए भेजन का प्रबंधन कहां से करेंगी। भले ही इन उद्योगों से महंगा और टिकाउ माल प्राप्त किया जा सकता हो लेकिन आज भी भोजन के लिए खेतों और किसानों पर से निर्भरता खत्म नहीं हुई है। लेकिन जब गांव शहरों में बदलेंगे और वहां उद्योग गंधा पानी और जहरीली गैसे उगलेंगे तथा किसान मजदूर बन साबुन-सरीया बनाऐंगे तो खेती करेगा कौन। क्या हमारी आर्थिक नीतियों में पहले से उद्योगों और कृषि में संतुलन बनाने की नीति का पालन किया गया था? और किया गया था तो क्यों हर साल जीडीपी में कृषि क्षेत्र का हिस्सा घटता जा रहा है और देश के कुछ हिस्से दक्षिण एशिया और आफ्रिका के गरीब देशों से भी नीचे खिसक गए हैं? क्यों विश्व में सबसे ज्यादा लगभग 42 प्रतिशत कपोषित बच्चे भारत में है? क्या इन सवालों के जबाब सरकार के पास है और है तो अब तक यह स्थिति क्यों बनीं हुई। क्यों देश को सीमेंट के जंगल में तब्दील किया जा रहा है। सरकार को चाहिए की वह अपनी नीतियों को जमीनी स्तर पर आकर बनाए जहां उन्हें कार्यरूप् में परिणित किया जा सके। साथ ही सरकार अपनी उदारवादी नीतियों को उद्योग घरानों की अपेक्षा आम नागरिकों के प्रति उदार बनाए।