Monday, April 9, 2012

शहरों की ओर पलायन को अभिशप्त 'गांवों में बसा भारत'



भारत के बारे में बहुत पुराना और अब अप्रासंगिक सा हो चुका एक तर्क है जो आज भी बच्चों को स्कूलों में पढ़ाया जाता है कि 'भारत गांवों में बसता है'। औद्योगिकरण और उदारीकरण के प्रारंभ तक यह बात सच भी साबित होती थी, पर आज गांवों का छोटा होता आकार और सिमटते खेतों ने इस सच्चाई को एक जुमले तक सिमित कर दिया है। इस बात को प्रमाणित करती है वर्ष 2011 की  जनगणना. जिसमें साफ तौर पर भारत में शहरों की बढ़ती संख्या को रेखांकित किया गया है। लेकिन जहां हमारी दस वर्षीय जनगणना देश में नए शहरों की बढ़ती संख्या और पुराने शहरों के बढ़ते दायरों को दिखाती है वहीं पलायन की मार से जनसंख्या विहीन होते उन गांवों की भी साफ तस्वीर खींचती है, जहां के किसान अपनी जमीन और पारंपरिक कार्य खेती को छोड़ शहरों की खाक छानते नजर आते हैं। 
जहां वर्ष 2001 की जनगणना के अनुसार भारत में जनगणना नगरों (Census Towns) की संख्या 1,362 थी वहीं आज 2011 में बढ़कर 3,894 हो गई है। इसी तरह वैधानिक नगरों (Statutory Towns) की संख्या 2001 के 3799 के मुकाबले 4041 और सामान्य नगरों (Towns) की संख्या 5161 से बढ़कर 7935 हो गई है। यहाँ शहरों की बढ़ती संख्या के कारण को सीधे तौर पर दो तरीकों से समझा जा सकता है जिसमें पहला तरीका ग्रामीण आबादी का शहरों में रहने का मोह जिससे या तो गांवों के लोग शहरों की और पलायन कर गए या फिर शहरी जीवन शैली से प्रभावित होकर अपने छोटे गांवों को नगर पंचायत,  नगर पंचायत से नगर पालिका,  नगर पालिका से महानगर पालिका और महानगर पालिका से नगर निगम में बदलने की कोशिश करने लगे।

दूसरी और गांवों में बढ़ती बेरोजगारी, दबंगई, भुखमरी और बाढ़ तथा अकाल जैसे प्राकृतिक प्रकोपों ने गांवों में बसते सच्चे भारत के बाशिंदों को शहरों की भीड़ में धकेल दिया। लेकिन कारण जो भी हो इससे एक तो शहरों की संख्या में इजाफा हुआ हैं वहीं दूसरी और पहले से खचाखच भरे दिल्ली-मुंबई जैसे महागरों में जनसंख्या घनत्व बढ़ने के साथ-साथ आवास, पेयजल, रोजगार और प्रदूषण जैसी समस्याओं ने जन्म लिया है। इन्हीं कारणों के चलते महाराष्ट्र की मनसे (महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना) जैसी राजनैतिक पार्टी को क्षेत्रीयता के आधार पर राजनीति करने का मौका मिल गया। जो किसी भी प्रगतिशील लोकतंत्र के लिए सही संकेत नहीं हैं।
शहरों की बढ़ती आबादी का असर सिर्फ नगरों-महागरों पर हुआ हो ऐसा भी नहीं है। जितना असर और अव्यवस्था शहरों में हुई है उससे कहीं ज्यादा नुकसान गांवों को हुआ है ठेस उस भावना को पहुंची हे जिसके आधार पर महात्मा गांधी ने कहा था कि भारत गांवों में बसता है। शायद यही कारण था कि आजादी के कुछ वर्षों तक भारतीय कृषि अर्थव्यवस्था का इंजन मानी जाती थी। निरंतर बढ़ती जनसंख्या और सिमित होते संसाधनों से बढ़ता कुपोषण और भुखमरी कहीं न कहीं गांवों के घटते महत्व और उनकी उपयोगिता में आती कमी का ही परिणाम है।
ऐसे में केन्द्र सरकार का देश में सात नए औद्योगिक शहरों के निर्माण का फैसला उस परिस्थिति की ओर इशारा करता है जिसे यूरोपीय देशों में औद्योगिकीकरण के दौरान देखा जा चूका है. जहाँ उच्च बुर्जुआ वर्ग, मेहनती कामगार सर्वहारा वर्ग का शोषण अपने मुनाफे के लिए करता था और निर्दोष सर्वहारा वर्ग अपना पूरा जीवन मलीन बस्तियों में गुजारने को मजबूर हुआ करता था। कहा जा रहा है कि जमशेदपुर, चढ़ीगढ़, कानपुर और इंदौर आदि की तर्ज पर बनने वाले इन शहरों का मॉडल एक्सपोट प्रोसेसिंग जोन (ईपीजेड) और स्पेशल इॅकोनामिक जोन (एसईजेड) की तरह होगा। इन औद्योगिक नगरों (लार्ज इंटिग्रेटेड टाउनशिप) को राष्ट्रीय निवेश एवं विनिर्माण क्षेत्र (नेशनल इन्वेस्टमेंट एंड मैन्यूफैक्चरिंग जोन-निम्ज) कहा जाएगा। इससे सरकार का लक्ष्य वर्ष 2022 तक अर्थव्यवस्था में विनिर्माण क्षेत्र की हिस्सेदारी 15-16 प्रतिशत से बढ़ाकर 25 प्रतिशत तक लाना है। जिससे उंची आर्थिक विकास दर, लगभग दस करोड़ नए रोजगार अवसर और अंतरराष्ट्रीय बाजार में भारतीय उत्पादों को अधिक प्रतिस्पर्धी बनाना है। लेकिन हसीन सपनों के पीछे छिपी चिंता जिनमें ऐसे औद्योगिक शहरों को विकसित करने के लिए आवश्यक जमीन की उपलब्धता,  पर्यावरण  संरक्षण का प्रश्न, रोजगार की गारंटी व कामगारों का सुरक्षित भविष्य, गहराता खाद्यान्न संकट व पलायन का बढ़ता स्तर- गांवों की निरंतर गिरती स्थिति और अप्रत्याशित रूप से प्राकृतिक संसाधनों में आती कमी जो पहले से स्थापित उद्योगों के चलते एक विचारणीय प्रश्न बना हुआ है।
औद्योगिक शहरों के निर्माण से कुछ प्रश्न उभरकर सामने आते है जिनमें पहला सवाल यह है कि इन शहरों का निर्माण कहाँ होगा। सरकार ने इसके लिए भी तैयारियां कर रखी हैं और उसका तर्क यह है कि इन औद्योगिक शहरों का निर्माण बंजर भूमि में किया जाएगा। लेकिन क्या सरकार के पास ऐसी कोई कार्य योजना है जिससे इन क्षेत्रों के निर्माण के लिए कम से कम 5000 हैक्टेयर बंजर भूमि उपलब्ध हो सके और इससे भूमि अधिग्रहण के अनुभवों सिंगुर और नंदीग्राम में उत्पन्न स्थिति से बचा जा सकें।
दूसरा सवाल पर्यावरण संरक्षण का है आज जहां पूरा विश्व ग्लोबल वार्मिग और मौसम परिर्वतन का रोना रो रहा है, ऐसे में क्या इन औद्योगिक शहरों के निर्माण में पर्यावरणीय चिंताओं के अनुरूप काम हो पाएगा और विश्व स्तरीय उत्पाद प्राप्त करने की दौड़ में क्या ग्रीन इॅकोनामी जैसी अवधारणा मूर्तरूप ले पाएगी। लेकिन आदर्श हाउसिंग सोसाइटी और लवासा टाउनशिप के अननुभव बताते है कि निर्माण कार्य तो हो सकता है लेकिन उनमें पर्यावरण की अनदेखी न हो कछ कह पाना मुश्किल है। ऐसा न भी और पर्यावरण संरक्षण के लिए कुछ मानक निर्धारित कर भी दिए जाए तो भी इस बात की कोई गारंटी नहीं है कि उनका शब्दशः पालन हो सकेगा और मालवा के पीथमपुर (एसईजेड) के आसपास खेती-किसानी की हो रही दुर्गति जैसी स्थिति से बचा जा सकेगा।
तीसरा सवाल है रोजगार की गारंटी और कामगारों के सुरक्षित भविष्य का। अगर इन औद्योगिक शहरों में गांवों से आए ग्रामीणें को काम दिया भी गया तो वह किसी मजदूर या बेंडर से ज्यादा का हो इसका अनुमान लगाना मुश्किल है। क्योंकि आज जहां बड़े-बड़े राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर के संस्थानों से मोटी फीस भरकर पढ़ाई करने वाले 'प्रोडक्टों' को भी प्लेसमेंट फीस के नाम पर नौकरी के लिए अच्छी खासी रकम चुकानी पड़ रही है ऐसे हालात में ग्रामीण गरीब-गुरबों, अनपढ़ और अप्रशिक्षित कामगारों को क्या काम मिलेगा आसानी से समझा जा सकता है। मान भी लिया जाए की इन अप्रशिक्षित कामगारों को उनकी योगयता के अनुसार काम दे भी दिया गया तो भी क्या इनके भविष्य की सुरक्षा की गारंटी होगी और उसे कौन वहन करेगा (सरकार या औद्योगिक घराने?), जिससे मानेसर मारूती प्लांट में उत्पन्न अस्थिरता जैसी स्थिति से बचा जा सके। यहां सरकार का एक तर्क यह हो सकता है कि इन कामगारों के भविष्य की सुरक्षा के लिए एक कोष बनाया जाना है। लेकिन क्या ऐसी स्थिति उत्पन्न होने पर उन्हें मुआवजा मिल पाएगा। यदि हां तो अब तक नर्मदा बचाओ आंदोलन के पीड़ितों और भेपाल गैस कांड के निर्दोषों को मआवजे का भुगतान पूर्ण रूप से क्यों नहीं किया गया।
चौथा सवाल पलायन की समस्या का है जो वर्तमान में अपनी सभी सीमाएं तोड़ चुकी है और दिन प्रतिदिन सुरसा के मुंह की तरह बढ़ती ही चली जा रही है। एक अनुमान के मुताबिक बिहार जैसे राज्य जहां एक साल में तीन-तीन फसलें होती है से लगभग 55 लाख भूमिहीन और छोटे किसान 2007 से अब तक पलायन कर चुके हैं। आज पंजाब में कृषि कार्य में लगे 90 प्रतिशत से ज्यादा कृषि मजदूर बिहार के हैं जो राष्ट्रीय स्तर पर एक गंभीर समस्या बनकर उभरती है। ऐसे इन शहरों के निर्माण से क्या पलायन को बढ़ावा नहीं मिलेगा, और क्या कृषि मजदूर बनें लोगों को औद्योगिक मजदूर नहीं बनाया जाएगा। इससे कृषि का जो नुकसान होगा सो अलग।
पांचवा और सबसे महत्वपूर्ण सवाल खाद्यान्न की उपलब्धता और गहराते खाद्यान्न संकट से जुड़ा है। प्राकृतिक आपदा, पर्यावरण असंतुलन, पलायन, घटते खेत और सरकारी उपेक्षा का दंश झेल रही भारतीय कृषि क्या इससे बच पाएगी। वैसे भी आजादी के बाद की राजनीति भारतीय कृषि को समूल नष्ट करने की राजनीति रही है। कृषि प्रधान भारत के विकास की जिम्मेदारी औद्योगिक क्षेत्र को सौंप दी गई और भारतीय कृषि को इस उदासीनता का दंश झोलना पड़ा। आजादी के समय की तुलना में आज कृषि उपज साढ़े तीन गुना बढ़ी है लेकिन राष्ट्रीय आय में इसका हिस्सा निरंतर घटता चला गया। जहां आजादी के समय 1947 में राष्ट्रीय आय में कृषि क्षेत्र का हिस्सा 65 प्रतिशत था वही 2007 में घटकर 17 प्रतिशत रह गया और इसके 2022 तक घटकर 6 प्रतिशत पर आने जाने की संभावना है। ऐसे में सरकार गांवों और खेती-किसानी से दूर होते इन कामगारों के लिए भेजन का प्रबंधन कहां से करेंगी। भले ही इन उद्योगों से महंगा और टिकाउ माल प्राप्त किया जा सकता हो लेकिन आज भी भोजन के लिए खेतों और किसानों पर से निर्भरता खत्म नहीं हुई है। लेकिन जब गांव शहरों में बदलेंगे और वहां उद्योग गंधा पानी और जहरीली गैसे उगलेंगे तथा किसान मजदूर बन साबुन-सरीया बनाऐंगे तो खेती करेगा कौन। क्या हमारी आर्थिक नीतियों में पहले से उद्योगों और कृषि में संतुलन बनाने की नीति का पालन किया गया था? और किया गया था तो क्यों हर साल जीडीपी में कृषि क्षेत्र का हिस्सा घटता जा रहा है और देश के कुछ हिस्से दक्षिण एशिया और आफ्रिका के गरीब देशों से भी नीचे खिसक गए हैं? क्यों विश्व में सबसे ज्यादा लगभग 42 प्रतिशत कपोषित बच्चे भारत में है? क्या इन सवालों के जबाब सरकार के पास है और है तो अब तक यह स्थिति क्यों बनीं हुई। क्यों देश को सीमेंट के जंगल में तब्दील किया जा रहा है। सरकार को चाहिए की वह अपनी नीतियों को जमीनी स्तर पर आकर बनाए जहां उन्हें कार्यरूप् में परिणित किया जा सके। साथ ही सरकार अपनी उदारवादी नीतियों को उद्योग घरानों की अपेक्षा आम नागरिकों के प्रति उदार बनाए।

Saturday, May 28, 2011

बिहार में बढ़ता कॉल सेंटर का प्रभाव



                                                                              ओमप्रकाश  बारहवीं पास है . पटना में रहते है और पत्राचार से बीए कर रहे है. ओमप्रकाश और इन जैसे सैकड़ों  युवा जो भारतीय सेना में भर्ती होकर एक अच्छे भविष्य के साथ देश सेवा  का भी जज्बा रखते है. लेकिन कई कोशिशों के बाद भी उनका यह दुर्भाग्य रहा कि वे सलेक्ट नहीं हो पाए. ओमप्रकाश के पिता ऑटो चलते है, जिससे पुरे परिवार का खर्चा चलता है. परिवार में दो बहनों के होने और उनकी शादी कि चिंता से मनो पुरे परिवार कि भविष्य कि योजनओं पर ग्रहण लगा दिया हों,
              संचार क्रांति और टेलिकॉम सेक्टर के चलन ने एक एसे समय में जब ओमप्रकाश के लिए सबसे पहला काम अपनी पारिवारिक आमदनी बढ़ाना था डूबता को तिनके का सहारा दिया. कुछ हजार रुपयों से एक नामी टेलिकॉम कम्पनी को सेवा देने वाले कॉल सेंटर को ज्वाइन करने वाले ओमप्रकाश आज बारह हजार रूपये महिना कमाते हैं. अपनी एक बहन की शादी करने के बाद तो मानो उनका पुराना आत्मविश्वास फिर से लौट आया हैं.
   आज पटना में कई बड़ी कम्पनिओं के कॉल सेंटर खुल गए हैं. टेलिकॉम सेक्टर की कम्पनी जैसे - एयरटेल, वोडाफोन, डोकोमो, युनिनोर की तरह ही तेलिब्रांड जैसी बड़ी रिटेल चैन के कॉल सेंटर भी आज पटना में काम कर रहे  हैं. निजी ही नहीं बिहार सरकार ने भी अपने  कई विभागों और  योजनओं में जैसे- मानव विकास विभाग और महादलित मिशन में आम लोगो को हेल्प लाइन  सेवा मुहैया करने के लिए कॉल सेंटर खोंले हैं. जिसे बिहार के युवा एक अच्छे विकल्प के तौर पर आपना सकते हैं. कालेजों में पढ़ने वाला युवा वर्ग आज पढाई के साथ ही कॉल सेंटर में काम कर आपनी पढ़ाई का खर्चा खुद ही उठाने के साथ-साथ अपने परिवार को भी मदद दे रहे हैं. एसे युवाओं  के लिए कॉल सेंटर कमाई के जरिये के साथ ही आधुनिक जीवन की पहचान बन गए हैं. निश्चित योग्यता के के साथ एक सामान्य से  इंटरव्यू  से कॉल सेंटर में नौकरी पाई जा सकती है. जिसमे १५ से १८ दिनों की ट्रेनिंग के बाद काम चालू हो जाता है. फोन पर अपने ग्राहकों की समस्या सुलझाना हो या किसी उत्पाद की बिक्री करना हो इन सभी कामो के लिए आज कॉल सेंटर भी युवओं की ओर देख रहे हैं. 
मेट्रो सिटी में चलने वाले कॉल सेंटर पटना के कॉल सेंटर की अपेक्षा अधिक सुविधा संपन्न होते हैं. वहाँ अधिक वेतन के साथ आने - जाने के लिए गाड़िया रात में महिलाओं  के के लिए सुरक्षा व्यवस्था ओर समय-समय पर प्रोत्साहन की व्यवस्था होती है. लेकिन तेजी से विकास करते बिहार में कॉल सेंटर का चलन आभी नया ही है. ओर इसके कई सालो में कई हज़ार करोड़ के हो जाने की सम्भावना हैं. फिक्की जैसे बड़े संगठन ने भारत में बीपीओ ओर कॉल सेंटर  सेक्टर की वार्षिक विकास दर ५० प्रतिशत से भी आधिक बताई  हैं. जो युवओं के साथ ही स्थानीय सरकार के लिए राजस्व का अच्छा स्त्रोत है. 
      बिहार के उप मुख्यमंत्री सुशिल कुमार मोदी ने कॉल सेंटर के बड़ते प्रभाव ओर उसके फायदों को देखते हुए ही एक नामी कंपनी के कॉल सेंटर के उद्घाटन समाहरो में बिहारी युवओं को सलहा दी थी कि वेह आगे आकर बीपीओ ओर कॉल सेंटर से जुड़े जिनमें बीए और बी. कॉम जैसी परंपरागत डिग्रियों कि जरुरत नहीं होती हैं. इसी के चलते आज पटना के आधिकांश  युवा इसकी और आकर्षित हो रहे हैं और ओमप्रकाश कि तरह ही अपने सपनो को साकार करने में लगे हुए हैं.      

Friday, April 8, 2011

हजारे से हजारों और हजारों से अरबों

                                    
  मेरे एक मित्र जिनके पिता एक सरकारी कार्यालय में कर्मचारी हैं। आजकल अबतक की एक असुलझी हुई समस्या से परेशान है। उनकी समस्या कोई उनकी व्यक्तिगत समस्या ना होकर एक सामाजिक समस्या बन चुकी है। उनकी समस्या का कारण आजकल समाचार पत्रों की सुर्खियों में आने वाला वरिष्ठ समाजसेवी श्री अन्ना हजारे का भ्रष्टाचार के खिलाफ आमरण अनशनहै। वह कहते हैं, कि एक ओर तो मैं एक अच्छा भारतीय नागरिक बनना चाहता हूं जो निस्वार्थ भाव से राष्ट्र को प्रगति के पथ पर आगे बढाने में सहयोग कर सकें , लेकिन दूसरी ओर अन्ना हजारे का समर्थन कर वह अपने पैर पर खुद ही कुलहाड़ी नहीं मार सकता। बहुत पूछने पर उन्होंने बताया की मेरे पिता की मासिक आय इतनी कम है कि उससे मैं और मेरा परिवार पूरे महीने सिर्फ खाना ही खा सकते हैं। अगर पिता की ऊपरी कमाई बंद हो जाएं तो मेरी पढ़ाई से लेकर बहन की शादी तक खटाई में पड़ सकती है। तो इस हालात में, मैं उस भ्रष्टाचार का विरोघ कैसे कर सकता हूँ जिससे मेरा घर चलता हो।
 एक मित्र की समस्या पर गौर कर पाया की यह समस्या किसी एक परिवार की नहीं बल्कि समाज के उस तबके की है जिनकी आमदनी तो बहुत कम लेकिन उनकी आकांक्षा समाज के साथ कदम से कदम मिलाकर विकास की नई बुलंदियों को छूने की हैं। तो सवाल यह उठता है कि, अगर एक भ्रष्टाचार (व्यक्तिगत भ्रष्टाचार) से किसी का विकास संभव है या किसी का पारिवारिक भरण-पोषण चलता हैं तो इससे किसी को क्या परेशानी हो सकती है। वहीं दूसरी ओर व्यक्तिगत भ्रष्टाचार को बढ़ावा देकर अन्ना हजारे जैसे समाजसेवी की भ्रष्टाचार के विरुध राष्ट्रव्यापी मुहिम को अवरोध करना कहा तक सही माना जाएगां।
      गले तक भ्रष्टाचार में डूबी सरकार और उसी से भ्रष्टाचार के खिलाफ जनलोकपाल विधेयकलाने के लिए राष्ट्रव्यापी मुहिम चलाना, यह काम सिर्फ अन्ना हजारे और अरविंद केजरीवाल जैसे निस्वार्थ, समाज-सुधार के लिए कृतसंकल्पित लोग ही कर सकते है। आज जंतर-मंतर पर हजारों लोग भ्रष्टाचार के खिलाफ अन्ना हजारे के साथ कंधे से कंधा मिलाए खड़े है। हो सकता है कि सरकार जनलोकपाल विधेयकके लिए राजी हो जाएं और एक कानून हमारे सामने आए। लेकिन क्या केवल कानूनों की संख्या बढ़ाकर समाज सुधार की कल्पना की जा सकती है। जहां तक एक विकसित और सभ्य समाज का प्रश्न है तो उसके लिए आवश्यकता कानूनों के निर्माण की नहीं बल्कि एक ऐसे सामाजिक वातावरण की है, जहां सुधार आत्मा की आवाज सुनकर हो ना की कानूनों के डर से।
                                                                   
                                                                  - जय हिंद
    

Saturday, March 12, 2011

सारे जांह से अच्छा हिन्दुस्तान हमारा





               एक भारतीय होने के नाते सुन कर अच्छा लगता है l  लेकिन ना जाने क्यों कभी कभी अपने भारतीय होने पर शर्म सी आ जाती है l और जब अपने आप को उस व्यवस्था के अंग के रूप में पता हू तो लगता है कि शायद मेरा और मेरे जेसो का ही दोष है जो हमारे सामने इस रूप में आ रहा है जिसे वुद्दीजिवीयो की भाषा में शिक्षित और क्रांतिकरी मध्यम  वर्ग  कहते है l
वास्तव में  ये वर्ग उन लोगो का वर्ग है जिनकी बाते और विचार पेट से शुरू होकर रोटी पर ख़त्म हो जाते है l अपने आप को क्रांति का पर्याय मानने वाला मध्यम वर्ग आज के इस भोतिक वादी जीवन का इतना आदि हो चुका है की वह केवल अपने लिए जीना और सोचना चाहता  हैl                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                          
  यह देख कर हेरानी होती है कि  अपने आप को जन जन कि आवाज कहने वाला सूचना और संचार का वाहक वर्ग केवल कुछ पैसो के लिए अपना ईमान तक गिरवी रखने को तैयार खड़ा है l  अपनी गलतियों से सीखना और दुसरो के लिए सबक बनने कि बाते क्या सिर्फ बाते है ? क्या हमारे महान लोगो की शिक्षाए हमारे लिए कोई मायिने नहीं रखती और अगर नही रखती तो क्यों हम उन्हें  पूज कर उनका अपमान करते है l
क्या हम भूल गए की हमने उस धरती पर जन्म लिया l जहा अपने से पहले  अपनों की परवाह की जाती है, क्या हम अपने मूल्य और संस्कृति को भूल गये जो हमे सच्चा इंसान और एक ईमानदार भारतीय बनती है l
                                                                                   - "जय हिंद "

Thursday, February 10, 2011

तनाशाही का मिजाज और जनता का आगाज

    बड़ी मुद्दत के बाद आखिरकार मिस्रीयों की मुराद पूरी हो ही गई। मिस्र में मुबारक का तानाशाही शासन आमजन के विरोध और अंतरर्राष्ट्रीय दबाब के आगे टिक ना सका, और आखिर मुबारक को अपना बोरीयां बिस्तर बांधकर भागना पड़ा। पिछले 18 दिनों से काहिरा के तहरीर चौक पर इक्ठ्ठा हुए लाखों मिस्र वासियों की महनत सफल हो ही गई। उन्हें स्वतंत्रता मिल गई, स्वतंत्रता भी छोटी-मोटी नहीं बल्कि पिछले 30 सालों से चले आ रहे ऐसे तानाशाही शासक से जो जिसका कद विश्व कई राष्ट्रों से भी बड़ा था। बड़ी ही खुशी की बात है सिर्फ मिस्र की आम जनता के लिए ही नहीं बल्कि उन सभी के लिए जो ऐसे किसी भी प्रकार के तानाशाही शासन को खत्म करना चाहते है।
  हाल के दिनों में तानाशाही के मिजाज से जुड़ी तीन बड़ी घटनाएं देखने को मिली और तीनों में ही उसे मूंह की खानी पड़ी। पहली घटना हमारे पड़ोस यानी म्यांमार की जहां कई वर्षो के बाद लोकतंत्र की आवाज मानी जाने वाली महिला नेता आन सान सू ची को वहां के सैनिक शासन (जुंटा शासन) से रिहाई मिली। तो दूसरी और ट्यूनिशिया के शासक को जनता के विद्रोह के आगे घुटने टेकने पड़े। तीसरी घटना हाल की मिस्र से जुड़ी है जहां अभी-अभी राष्ट्रपति हुस्नी मुबारक का तख्तापलट वहां की आम जनता ने कर दिया, इसमें सबसे आश्चर्य की बात तो यह है कि इसमें जनता का साथ खुद सेना ने दिया, भले ही अप्रत्यक्ष रूप से लेकिन शायद उसकी मदद के बिना ऐसा संभव न होता या यूं कहे कि अगर सेना मुबारक के साथ होती तो इस आंदोलन के दम टोड़ने में जरा भी वक्त न लगता। जो भी हो लेकिन ये आमजन की जीत ही मानी जानी चाहिए।
     मिस्र की घटनाक्रम पर पूरा विश्व नजर गड़ाए बैठा था पिछले 18 दिनों का संघर्ष भी मीडिया ने खूब भुनाया। लगभग हर वह व्यक्ति जो टीवी-रेडियो के माध्यम से मिस्र से परिचित हुआ उसकी जुबान पर एक ही शब्द था मुबारक को सत्ता छोड़ देनी चाहिए। लेकिन आखिर क्या सिर्फ मुबारक का सत्ता छोड़कर चले जाना आमजन की जीत है या इसका दूसरा भी कोई विकल्प हो सकता था। कुछ दिनों पहले जब मिस्र में मुबारक की तानाशाही के खिलाफ आवाजें तेजी से उठनी चालू हुई उसी समय मुबारक ने अपने मंत्रीमंडल को भंग कर एक नए मंत्रीमंडल का गठन किया कहने को तो यह कहा जा रहा है कि इस नए मंत्रीमंडल में अधिकांश वही पुराने चहरे ही थे। क्या यह सिर्फ दिखावा नहीं हो सकता कि मुबारक राष्ट्रपति का पद छोड़ अपनी सारी ताकत अपने ही साथी ओमार सुलेमान के सुर्पद कर अप्रत्यक्ष रूप से सत्ता अपने पास ही रखे रहें।
    


Monday, January 17, 2011

आंध्रा का नृत्य हरियाणा की जमी और भारतीय युवा दिल

आज जाने की जिद ना करो.......छोड़ दो आंचल जामाना क्या कहेंगा- ना जाने इतने ही कितने तरह के गीतों के बीच भारतीय जनसंचार संस्थान के 125 से भी अधिक भावी पत्रकार छात्रों का सफर चल रहा था- अपनी मंजिल सूरजकुंड मेले की ओर। दिल्ली के सीमावर्ती और हरियाणा के प्रसिद्ध जिले फरिदाबाद में स्थित सूरज कुंड जहां आज का थीम था आंध्रप्रदेश जिसमें आंध्रा संस्कृति की झलक देखते बनती थी। वैसे तो हमारा देश भारत पूरे विश्व में अपनी संस्कृतिक विविधता के जिए जाना जाता है लेकिन ऐसा बहुत ही कम देखने को मिलता है कि देश की राजधानी दिल्ली से आए एक अलग सांस्कृतिे परिवेश के लोग देश की सबसे सम्रद्ध संस्कृतियों में से एक हरियाण/जाट संस्कृति की जमीन पर प्राचीनतम संस्कृति आंध्रा/तेलगु के विविध संस्कृतिक रंगों को निहारते हुए अपना बहुमूल्य समय व्यतीत कर रहे हो।
      भारतीय जन संचार संस्थान जो खुद भी कम विविधता से भरा हुआ नहीं है। देश के लगभग हर राज्यों से आने वाले छात्रों ने मिलकर इसे लगभग एक लघु भारत बना दिया है। कोई राजस्थान से तो कोई बंगाल से। कोई बिहार से तो कोई झारखण्ड़ से। कोई अपना मध्य प्रदेश छोड़कर आया है तो किसी को वापस अपने उत्तराखण्ड जाकर कुछ कर दिखाना है। ऐसे ही अनेक रंगो के फूलों से बसता है देश का सबसे बड़ा और सर्वश्रेष्ठ पत्रकारिता प्रशिक्षण का संस्थान। 

कल सुबह 9 बजे आप सभी संस्थान से सूरज कुंड मेले के लिए रवाना होंगे। इस बात का ध्यान रखे की आप आईआईएमसी का प्रतिनिधित्व करते है इसलिए संस्थान की गरिमा और मर्यादा का पूरा ख्याल रखे पूरा आनंद उठाए और कुछ नया सीखे जो आपको अपने व्यक्तिगत् और व्यवासायिक जीवन में काम आ सके। कुछ इस तरह9 बजे संस्थान परिसर में एक नए अनुभव को पाने के लिए व्याकुल और सूरज कुंड जाने के लिए ललायित नजर आ रहा था। लगभग 9%30 मिनट पर संस्थान प्रबंधन की और से उपलब्ध कराई गई] तीन बसो में सवार होकर भावी पत्रकारों का जत्था निकल पड़ा अपने निर्धारित गंतव्य की ओर। गाते सोते लड़ते-झगड़ते प्यार से गले मिलते इन छात्रों में भले ही अनेकों असमानताएं हो लेकिन इनका अपनापन और एक ही मातृभुमी की संताने होने का जज्बा अपने आप में किसी मिशाल से कम नजर नहीं आता।
 के अनौपचारिक निर्देशों और सलाहों के साथ संस्थान का प्रत्येक छात्र निर्धारित समय पर सुबह
      दो घंटे के अपने इस शानदार सफर के बाद सूरजकुंड मेले पहुचकर  इनका उत्साह चार गुना बड़ गया हो अपने अपने मित्रों की टोलियों में निकल पड़े मेले को अपने अपने चश्मे से देखने। कोई सांस्कतिक कार्यक्रमों के मंच का आनंद उठा रहा था तो कोई हेंड़ी क्राफ्ट आइटम को देखने में लगा हुआ था किसी को पेट पूजा करनी थी तो कोई सबसे पहले पूरा मेला घूम लेना चाहता था। कुछ तो हाथो में कापी-कलम लिए अपने पत्रकारिय गुणों का उपयोग कर देशी विदेशी महमानों का साक्षत्कार करने में व्यस्त था तो कुछ मेले के प्रबंधन की जानकरियां जुटाने में लगे हुए थे।      

Monday, September 20, 2010

हिन्दुस्तान में हिन्दू आगे हिंदी पीछे

l हिंदु और हिंदी दोनों के रिश्ते हिन्दुस्तान से वैसे ही है, जैसे किसी माता के लिए पुत्र - पुत्री l लेकिन ना जाने क्यों भारतीय दूषित  परम्पराऔ  के  अनुसार हिन्दुत्व को तो पुत्र सा प्यार और दुलार मिलता है, वही हिंदी के साथ सौतेला व्यवहार किया जाता है l
        
ताजा घटनाओं पर नजर डाले तो पता चलता हैकि अयोध्या भूमि विवाद  निर्णय  के इंतज़ार में लोक (जनता) और लोकतंत्र (जनता और सरकार)  दोनों ने कितनी सावधानी और संवेदनशीलता का परिचय दिया l वही दूसरी ओर  हिंदी पखवाड़े पर तो लोगो ने और ही सरकार ने किसी प्रकार की भावनाओ  का  प्रदर्शन  किया l माना जा सकता है की तात्कालिक परिवेश में साम्प्रदायिकता का मुद्दा भाषाई अस्मिता से बड़ा जरुर नजर आता हैलेकिन इसका  भी एक कारण कही कही भाषाई अस्मिता का कमजोर होना ही है भाषाई अस्मिता का कमजोर होना भी  साम्प्रदायिक आस्थिरता के लिए जिम्मेदार है l
           क्यों हम भारतीय अपने आप को हिंदु , मुस्लिम , सिख , ईसाई में बाटने में लगे हुए है l हिंदी हमारी भाषा ही नहीं बल्कि हमारा धर्म, हमारी संस्कृति और हमारी पहचान है l अगर इस मूल मंत्र को हम समझ पाए तो हम किसी विशेष पहचान से नही बल्कि अपनी भाषा "हिंदी" से जाने जाएगे l जो असल में हमारा  धर्म और  संस्कृति है l जब जाकर हम गर्व से कह सकेगे कि  "हिंदी है हम , वतन है हिन्दुस्तान हमारा " l     
   आज पूरी दुनिया में हिंदी भाषी लोग रह रहे है l भारतीय नेतृत्व, भारत को महाशक्ति  बनाने के लिए अन्य राष्टो का समर्थन हासिल करने का प्रयास कर रहा l बुद्धिजीवी वर्ग  भी अपने स्तर पर हिंदी को विश्व भाषा बनाने में लगा हुआ है, जो किसी महाशक्ति के लिए जरुरी भी हैइन सब बातो के होते हुए भी आम जन के पास हमारी अपनी भाषा को देने के लिए समय का आभाव है l साल के ३६५ दिनों में हमारे पास अपनी पहचान, अपनी भाषा को देने के लिए केवल १५ दिन है, जिसे हम  "हिंदी पखवाड़ेके रूप में मानते है l
                                    
इस साल अत्यधिक व्यस्तता (cwg) और हिंदी के प्रति उदासीनता ने फिर यह साबित कर दियाकि हिंदी संयुक्त राष्ट  में शामिल होकर विश्व  भाषा बनने  का दम तो रखती है l लेकिन उसकी हैसियत अपने ही देश में किसी नोकरानी से कम नही है l  ओर अधिक इत्तेफाक तब होता है जब  हिंदी उत्थान की बाते करने वाले सरकारी और गैर-सरकारी संस्थान केवल एक बैनर लगा "हिंदी पखवाड़े" की  औपचारिकता पूरी करते नजर आता  है  l